About the Book | |
Author of book | Dr. Panesar Paramjeet S. |
Book's Language | Hindi |
Book's Editions | First |
Pages of book | 120 |
Publishing Year of book | 2017 |
- Availability: In Stock
- Model: BHB-363
- ISBN: 978-93-85804-17-5
राजेन्द्र यादव के उपन्यासों में सामाजिक चेतना
राजेन्द्र यादव का नाम स्वातंत्र्योत्तर युग के उपन्यासकारों में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। राजेन्द्र यादव साठोत्तरी भारत की सही तस्वीर प्रस्तुत करनेवाले ऐसे रचनाधर्मी हैं जिनमें आजादी के बाद आए बदलाव की सही तस्वीर तो है ही, उसके साथ राजनीतिक परिवर्तनों के बजाय नाकारापन के विरु( आक्रोश भी है। ऐसा आक्रोश जिसमें कुंठा के स्थान पर संघर्ष चेतना है, संघर्षशीलता है, एक क्रांतिकारिता है। हिन्दी उपन्यास साहित्य में सामाजिक चेतना को जो उभार मिला है। वह साहित्य की अन्य विधाओं में नहीं मिलता। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर ‘राजेन्द्र यादव के उपन्यासों में सामाजिक चेतना’ की दृष्टि से समग्र विवेचन करने का प्रयास किया है। इस दृष्टि में प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के छः अध्याय अग्रलिखित रूप में हैं।
प्रथम अध्याय - ‘राजेन्द्र यादव : व्यक्तित्व व ड्डतित्व’ का है। इसअध्याय के अन्तर्गत उनके जन्म, बचपन, किशोरावस्था, शिक्षा, विवाह रुचि एवं प्रभाव पर विचार किया है। राजेन्द्र यादव के व्यक्तित्व की विशेषताओं का चित्रण किया गया है। राजेन्द्र यादव के ड्डतित्व के परिचय में उनका साहित्य से लगाव, साहित्य सर्जना का प्रारम्भ व उनके उपन्यास साहित्य, आलोचना एवं संपादन कार्य, कहानी साहित्य आदि समग्र साहित्य का संक्षिप्त परिचय दिया गया है।
द्वितीय अध्याय - ‘विषय का स्पष्टीकरण एवं विषय प्रवेश’ है इस अध्याय के अन्तर्गत ‘युग’ शब्द की परिभाषाएँ, संकल्पनाएँ व स्वरूप, ‘चेतना’ शब्द की परिभाषाएँ, संकल्पनाएँ व स्वरूप, युग चेतना का महत्व, युग चेतना और साहित्यकार का दायित्व। साहित्य विधा के रूप में उपन्यास मानव जीवन के निकटतम होने से समाज जीवन को अपेक्षाड्डत अधिक यथार्थता से प्रस्तुत कर सकता है। राजेन्द्र यादव की युगीन परिस्थितियों को परिभाषित करने का प्रयास किया है।
तृतीय अध्याय - ‘स्वतंत्रतापूर्व के उपन्यासों में सामाजिक चेतना’ का है। इस अध्याय के अन्तर्गत नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन का प्रभाव एवं राष्ट्रीय जागरण और सामाजिक जीवन से सम्बन्धित साहित्य में समाजोन्मुख जीवन दृष्टि का प्रतिबिम्ब है। समाज सुधार के यत्न स्वदेशी आंदोलन, मानवीय समता के लिए परम्पराओं व अन्धविश्वासों के विरु( विद्रोह समष्टि के आतंक से पीड़ित व्यष्टि की मुक्ति आदि को परिभाषित करने का प्रयास किया है। यह काल स्वतंत्रता आंदोलनों का युग था। देश में नव जागरण का बोध तेजी से उभर रहा था। साहित्यकार उससे निर्लिप्त नहीं रह सका। उनकी रचनाओं में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, राष्ट्रीय परिस्थितियों के दर्शन होते हैं।
चतुर्थ अध्याय - ‘राजेन्द्र यादव के उपन्यासों में सामाजिक चेतना’ ;कथ्य विश्लेषणद्ध पर केन्द्रित है। इस अध्याय के अन्तर्गत राजेन्द्र यादव के उपन्यासों में सामाजिकता के विशिष्ट आयाम, पारिवारिक विघटन, हीनता, कुंठा, अहंबोध, आर्थिक समस्या, सामाजिक समस्याएँ एवं व्यक्ति चित्रण, सांस्ड्डतिक जीवन का महत्व समाज जीवन का यथार्थ, रूढ़ समाज व्यवस्था व उसमें परिवर्तन, आकांक्षा, धार्मिक यथार्थ, सामाजिक नैतिक मूल्य आदि इन सभी तथ्यों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है।
पंचम अध्याय - ‘उपन्यासों में समाजोन्मुखी जीवन दृष्टि’ के अन्तर्गतमध्यवर्गीय समाज की अवधारणा, मध्यवर्गीय मानसिकता, साहित्य और समाज, व्यक्ति और समाज के संदर्भ में समाजोन्मुखी जीवन दृष्टि एवं राजेन्द्र यादव की औपन्यासिक दृष्टि से परिचित कराने की कोशिश की गई है।षष्ठ अध्याय - उपसंहार का है, जिसमें राजेन्द्र यादव की सामाजिक धारणा के साथ उनके साहित्य के विविध रूपों की चर्चा की गई है, साथ ही सम्पूर्ण शोध प्रबन्ध में समाविष्ट समस्त विषयों के समन्वित अनुशीलन का प्रयास किया गया है। अंत में संदर्भ सूची एवं विभिन्न पत्रिकाओं की सूची दी गई है।
डॉ० पनेसर परमजीत एस०व्याख्याता, हिन्दी विभाग
आर्ट्स कॉलेज, शामलाजी
जिला- अरवल्ली-383355